चार धामों में से एक है जगन्नाथ पुरी धाम आज इस पोस्ट के माध्यम से हम उसी जगन्नाथ पुरी का रहस्य को जानेंगे, जिसे शायद आपने पहले कभी नहीं सुना होगा.
जगन्नाथ पुरी धाम ओडिशा के समुद्र तट पर स्तिथ है यह चार धामों में से एक धाम हैं जिसे जगन्नाथ पुरी धाम कहा जाता है. यहाँ देश विदेश से शैलानी हमेशा आते रहतें हैं. और यहाँ की रथ यात्रा पुरे विश्व में प्रशिद्ध है. इसकी अनेक प्रकार के रहस्य है. आइये जानतें है इन्ही कुछ रहस्यों के बारें में.
जगन्नाथ पुरी का रहस्य

दोस्त बहुत पहले की बात है जब मध्य भारत में माधव नाम का एक राज्य हुआ करता था जिसके राजा इंद्रद्युम्न थे इंद्रद्युम्न के पिता का नाम भारत और माता का नाम श्रीमती सुमति था.
ऐसा माना जाता है कि राजा भगवान शिव का बहुत बड़ा भक्त था और उसके मन में हमेशा यही इच्छा रहती थी कि किसी तरह से भगवान विष्णु के दर्शन हो जाए तो उनका जीवन सफल हो जाए.
एक बार की बात है, जब राजा के महल में एक ऋषि पहुंचे और राजा इंद्रद्युम्न से बोले हे राजन तुम भगवान विष्णु के बहुत बड़े भक्त हो लेकिन क्या तुम यह जानते हो कि उड़ीसा में भगवान विष्णु का दिव्य रूप नील माधव का मंदिर हैं क्या इस के बारे में जानते हो?
राजा ने कहा मुझे तो इसके बारे में कोई जानकारी नहीं है, हे ऋषि मिनी मुझे इसके बारे में जानकारी दो कि यह मंदिर उड़ीसा में कहां पर स्थित है
ऋषि मुनि ने कहा मुझे भी इसके बारे में कोई जानकारी नहीं इसलिए मैंने आपसे पूछा अगर आप भी इसके बारे में नहीं जानते तो क्या आप इसे ढूंढने में मेरी मदद कर सकते हैं और उसके बाद वहां से ऋषि मुनि चले गए.
उसके बाद राजा ने अपने पुजारी के भाई विद्यापति को बुलाया और उसे आदेश दिया कि वह जाय उड़ीसा और उस मंदिर के बारे में पता लगाएं जहां भगवान विष्णु के रूप नीलमाधव को पूजा जाता है
राजा के आदेश के बाद विद्यापति उड़ीसा की ओर निकल पड़े
वे जब उड़ीसा पहुंचे तो उन्हें पता चला कि सबर कबीले के लोग हैं जो नीलमाधव की पूजा करते हैं
यह जानकर फिर वह उस काबिले के मुखिया विश्ववासु के पास पहुंचे और उनसे प्रार्थना की कि वह उन्हें उस जगह पर ले जाए जहां नील माधव जी की पूजा होती है. लेकिन विश्ववासु ने विद्यापति को इसके लिए मना कर दिया.
कुछ समय वही रहने के बाद विद्यापति को यह जानकारी हो गई कि सबर कबीले का मुखिया ही नीलमाधव का भक्त है और उसने भगवान की मूर्ति को किसी गुफा में छुपा रखा है.
मुख्य विश्वासु की एक बेटी भी थी जिसे विद्यापति के साथ प्रेम हो गया और कुछ समय बाद दोनों का विवाह हो गया इसी तरह समय बीतता गया और फिर एक दिन विद्यापति ने अपनी पत्नी से कहा कि अपने पिता से कहे कि वह किसी तरह से नीलमाधव भगवान के दर्शन करा दे.
मुख्य की बेटी ने अपने पिता से विनती की कि वह विद्यापति को मंदिर के दर्शन करा दे. बेटी की विनती को सुनकर पीता भी तैयार हो गया लेकिन उसने एक शर्त राखी. और शर्त यह थी कि विद्यापति की आंखों में पट्टी बांधकर उसे वहां ले जाया जाएगा. विद्यापति ने यह शर्त मान लिया.
शर्त के अनुसार विद्यापति को मंदिर की ओर ले जाया गया और विद्यापति की आंखों में पट्टी बंधी थी लेकिन विद्यापति भी होशियार था वह रास्ते को याद करने के लिए रस्ते में छोटे-छोटे कंकड़ फेंकते हुए गया.
और फिर दर्शन करने के बाद वापस आ गए.
दुसरे दिन कंकड़ की मदद से विद्यापति मंदिर पहुंच गया और भगवान नीलमाधव की मूर्ति चुरा ली और राजा को लाकर दे दिया.
जब इसके बारे में मुख्या को पता चला तो बहुत दुखी हुए और अपने भक्तों को देखकर भगवान भी दुखी हुए और वापस अपनी जगह पर लौट आए लेकिन इसके साथ ही भगवान ने राजा इंद्रद्युम को भी वादा किया की एक दिन वह उनके पास जरूर आएंगे बशर्त है कि उनके लिए एक विशाल मंदिर का निर्माण करें.
राजा ने भगवान के लिए एक विशाल मंदिर भी बनवा दिया और फिर भगवान विष्णु को उस मंदिर पर विराजमान होने के लिए कहा भगवान ने राजा से कहा कि तुम मेरी मूर्ति बनाने के लिए समुद्र में तैर रहा लकड़ी का टुकड़ा लेकर आओ जो पुरी के समुद्र में तैर रहा है
राजा के लोगों ने उस पेड़ के टुकड़े को तो ढूंढ लिया लेकिन सब मिलकर भी उसे उठा नहीं पाए तब राजा को समझ में आ गया इसके लिए भगवान नीलमाधव के भक्त कबीले के सरदार विश्ववासु की मदद लेनी पड़ेगी सब यह देखकर हैरान रह गए कि विश्ववासु अकेले ही उस विशाल लकड़ी को उठाकर ले आए.
इसके बाद लकड़ी की मूर्ति बनाने के लिए राजा के कारीगरों ने लकड़ी में छेद करने की कई बार प्रयास की पर लकड़ी पर एक बार भी छेद नहीं कर पाए. तब भगवान विश्वकर्मा एक बूढ़े व्यक्ति का रूप धारणकर राजा के पास आए.
उन्होंने राजा से कहा कि, वह भगवान नीलमाधव की मूर्ति बना सकते हैं लेकिन उन्होंने एक शर्त रखा कि वह 21 दिनों में मूर्ति को बनाएंगे और वह अकेले में बनाएंगे और इस दौरान उन्हें कोई नहीं देख सकता और राजा ने यह शर्त मान ली इसके बाद कई दिनों तक मंदिर के अंदर से छैनी हथोडी वगैरह की आवाज आती रही.
फिर 15 दिन बाद रजा इंद्रद्युम्न की रानी जब मंदिर के पास पहुंची तो उन्हें अन्दर से किसी चीज की आवाज नहीं आई, तो वह खुद को नहीं रोक पाई और वह इस बात से डर गई. उसे लगा कि वह बूढ़ा कारीगर कहीं मर तो नहीं गया है.
उसने इसकी खबर राजा को भी दे दी. यह सुनकर राजा भी डर गया और वह सभी शर्तों को ध्यान में ना रखते हुए मंदिर का दरवाजा खोलने का आदेश दिया.
जब दरवाजा खुला वह बूढ़ा व्यक्ति वहां पर नहीं था वह गायब हो चुका था और भगवान नीलमाधव की अधूरी मूर्ति उनके भाई बहनों के साथ बनी हुई थी जिसमें नीलमाधव उनके भाई के छोटे-छोटे हाथ बने हुए थे लेकिन उनकी टांगे नहीं बनी हुई थी जबकि सुभद्रा के हाथ पाव बनाए ही नहीं गए थे
यह जो कुछ भी हुआ राजा ने इसे भगवान की इच्छा मानकर इसे ही मंदिर में स्थापित करने का फैसला लिया और तब से लेकर अब तक भगवान का यही रूप ही उड़ीसा के पुरी धाम में स्थित है.